आदमी

बैठकर बारूद पर ,  तीली जलाता आदमी  |
लगाकर आग अपने गाँव में , है घर बचाता आदमी |
मंदिरों और मस्जिदों में , है भेद करता आदमी  |
पंख जिसके कट चुके हैं , वह  उड़ रहा है आदमी  |
विश्व्व की वायु प्रदूषित हो गयी जो , उस हवा को पी रहा है आदमी  |
किस पर करोगे विश्वास अब तुम ,आस्तीनी  साँप बन चुका है आदमी  |

टिप्पणियाँ

  1. आज का आदमी ऐसा ही है |

    जवाब देंहटाएं
  2. भाई दिलीप जी को मार्ग दर्शन और ब्लॉग ज्वाइन करने के लिए धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह रे आदमी तेरी भी क्या फितरत है | जिस थाली में खाता है ,उसी में छेद करता है | मुसीबतें स्वत : मोल लेता है , और फिर बेचैन हो
    इधर -उधर भटकता है |

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर कविता है | एक करारा व्यंग है |

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुन्दर लिखा है आपने पंकजजी

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

दोहा

ग़ज़ल

मुक्तक