आदमी
बैठकर बारूद पर , तीली जलाता आदमी |
लगाकर आग अपने गाँव में , है घर बचाता आदमी |
मंदिरों और मस्जिदों में , है भेद करता आदमी |
पंख जिसके कट चुके हैं , वह उड़ रहा है आदमी |
विश्व्व की वायु प्रदूषित हो गयी जो , उस हवा को पी रहा है आदमी |
किस पर करोगे विश्वास अब तुम ,आस्तीनी साँप बन चुका है आदमी |
बहुत सुंदर पंक्तियाँ है
जवाब देंहटाएंआज का आदमी ऐसा ही है |
जवाब देंहटाएंbahut achchi rachna...
जवाब देंहटाएंhttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
भाई दिलीप जी को मार्ग दर्शन और ब्लॉग ज्वाइन करने के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंवाह रे आदमी तेरी भी क्या फितरत है | जिस थाली में खाता है ,उसी में छेद करता है | मुसीबतें स्वत : मोल लेता है , और फिर बेचैन हो
जवाब देंहटाएंइधर -उधर भटकता है |
nice rachna
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता है | एक करारा व्यंग है |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लिखा है आपने पंकजजी
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