बदलना चाहिए
जहाँ चाँद मिथ्या दर्प से इठला रहा हो |
सितारें विषमताओं की बात बोलें |
सूर्य कतरा धूप पर , करता हो दलाली |
गगन के परिवार में , जहाँ हों अपरिमित भेद ,
ऐसा नभ बदलना चाहिए |
नर महा निर्माण का यह सिलसिला |
मुझको लीक पर ही, सदा चलता मिला |
परम्पराएं विषैली ,हों गयीं हैं जहाँ |
राहें भुलाने पर तुली हों अब जहाँ ,
ऐसा पथ बदलना चाहिए |
जहाँ देहरी पर विषमताओं की कीलें जड़ीं हों |
चहुँओर आँगन में समस्याएं मुहँ बाएँ खड़ीं हों |
जिससे मिलाता हाथ , वोह तो काट लेता |
जिसको समझता भ्रात, वोह तो नाग होता |
दोहरी प्रकृति के लोग रहतें हों जहाँ ,
ऐसा घर बदलना चाहिए |
नीड़ का निर्माण करना , सोच का यह धर्म है |
जन्मते , मरते पाऊँ शिखर यह कर्म है |
सम्भोग से सन्यास तक|
आवास से आकाश तक|
अधूरा बिम्ब जो देता रहा ,
ऐसा दर्पण बदलना चाहिए |
नितांत सत्य कहा है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सुंदर रचना के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंnice poem sir jee
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