मुक्तक

शूल भी क्या फूल भी , सब कटीलें हो गए
डालियों पर जो लगाये , फल कसैले हो गए
बात किसकी अब करून , आदमी या जानवर की ,
आदमी तो जानवर से , भी विषैले हो गए
आदमी की जिन्दगी क्या , यह लटकता सा तना है
हाथ से पावं तक , हर तरह से यह सना है
है पता उसको नहीं , जिन्दगी की शाम का ,
क्या उचित अनुचित यहाँ , सब उसी को सोचना है

टिप्पणियाँ

  1. BAHUT HI SUNDER HAI.SACH HAI KI AAJ KA ADMI JANVAR SE BHI JYDA KHATARNAK HOTA JA RAHA HAI.VOH NIZI SWARTH KE SAMNE DOOSRON KE BARE MEIN KUCH NAHIN SOCHTA HAI.

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